गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

अमरीकी महिला पत्रकार जो मुसलमान हो गयी

मेरी कोशिशों से तीन सौ व्यक्तियों ने मादक-द्रव्यों से तौबा की है और इक्कीस मर्दों और औरतों ने इस्लाम ग्रहण किया है। मैं एक अपाहिज औरत हूं। मगर मैं अपने आपको अपाहिज नहीं समझती, क्योंकि मेरा ईमान है कि जो व्यक्ति मुसलमान हो जाए, वह कभी अपाहिज नहीं हो सकता, क्योंकि खुदा उसका सहारा बन जाता है।सुश्री आमिना अश्वेत अमेरिकी महिला हैं, जो अपनी सामाजिक सेवाओं के कारण विश्व प्रसिद्ध हैं। १९८० ई० में इनके कार्यों पर एक पुस्तक प्रकाशित हुई। उसके अनुसार ३५० व्यक्तियों ने उनकी प्रेरणा से नशा-सेवन छोड़ा था और २१ औरत-मर्दों ने इस्लाम कबूल कर लिया था।
उल्लेखनीय बात यह है कि शिकागो न्यूज़ से संबंध रखने वाली विलक्षण प्रतिभा की धनी ये पत्रकार महिला शारीरिक रूप से अपंग हैं। वे शिकागो के हबशियों की झोपड़ पट्टी में पैदा हुई, जहां गन्दगियों, अपराधों, नशाख़ोरियों, निर्धनता और दरिद्रता का गढ़ था। उनका पैदाइशी नाम सिंथिया था और उनके पिता भी हबशियों की तरह आवारागर्द, नशाख़ोर और अपराधी प्रवृति के थे। उनकी मां ही श्वेत लोगों के घरों में मज़दूरी करके घर का खर्च चलाती थी। बाप की लापरवाही और क्रूरता के कारण वे बाल्यावस्था में ही पोलियो का शिकार हो गयीं।
पांच साल की अवस्था में उनकी मां एक सस्ती-सी पहियों वाली कुर्सी खऱीद लायी और उन्हें एक स्कूल में छोड़ आयीं। सिंथिया ने जबसे बोलना शुरू किया था, वे बार-बार कहा करती थीं, मैं स्कूल जाऊंगी, मैं स्कूल जांऊगी। सिंथिया बड़ी समझदार और तीव्र बुद्धिवाली बच्ची थीं। वे अपनी कुर्सी को घसीटती हुई स्कूल चली जातीं। घर आ जातीं और पुस्तकें पढ़ती रहतीं। उनके शिक्षकगण उनकी प्रतिभा से बहुत प्रभावित थे। वे बड़ी संतोषी और धैर्यवान थीं। वे किसी हीन भावना से ग्रस्त नहीं हुईं। दूसरे बच्चों को भागते-दौड़ते देखकर वे अपनी विवशता और विकलांगता पर न कभी आंसू बहातीं, न परेशान होतीं और सिर झुकाये बड़ी निष्ठा और एकाग्रता से अध्ययन करती रहतीं। उन्होंने अपने स्कूल मे अपनी प्रतिभा की धाक बिठा दी थी। उन्हें हर वर्ष ईनाम मिला करता था। समय व्यतीत होता गया और सिंथिया १७ साल की हो गयीं। उन्होंने स्कूल की शिक्षा पूरी कर ली थी और अब यूनीवर्सिटी में दाख़िला लेना था। चूंकि उनकी श्रेष्ठ शैक्षिक योग्यता और प्रतिभा से सभी प्रभावित थे, इसलिए उन्हें छात्रवृत्ति मिल गयी और पांच साल तक वे यूनीवर्सिटी में शिक्षा ग्रहण करती रहीं तथा प्रतिष्ठा के साथ उसे पूर्ण किया। फिर एक स्थानीय समाचार-पत्र शिकागो न्यूज़ में उन्हें नौकरी भी मिल गयी। यही वह ज़माना था, जब सिंथिया अमेरिका के एक प्रसिद्ध अश्वेत नेता मेलकॉम एक्स के चरित्र से परिचित हुर्इं। वह कुख्यात और जाना-पहचाना अपराधकर्मी और नशीले-पदार्थों का हबशी विक्रेता था। वह अनगिनत गंभीर अपराधों में लिप्त था। और जीवन का बड़ा हिस्सा जेलों में व्यतीत कर चुका था। $खुदा का करना यह हुआ कि मेलकॉम मुसलमान हो गया और इससे न केवल उसकी अपनी जिन्दगी में ज़बरदस्त इन्िकलाब आ गया, वह एक नेक इन्सान बन गया, बल्कि उसके प्रचार और प्रेरणा से हजारों अश्वेत लोगों की जि़न्दगियां भी बदल गयीं। उन्होंने सैकड़ों ऐसे स्वयंसेवक तैयार किये जो विशेषत: अश्वेतों को सन्मार्ग पर लाने और उनको नशे से छुटकारा दिलाने के लिए दिन-रात प्रयत्नशील रहते थे। यह एक नया आन्दोलन था, यह एक नया इन्कलाब था, जो धीरे-धीरे अमेरिका के अश्वेतों में आ रहा था, जो उन्हें सम्मानपूर्वक जि़न्दा रहना सिखा रहा था। सिंथिया मेलकॉम एक्स के दोनों पहलुओं से अवगत थीं, इसलिए उसके दिलो-दिमाग ने इस्लाम धर्म से भी गहरा प्रभाव ग्रहण किया था। चूंकि वे अध्ययनशील प्रवत्ति की थीं इसलिए उन्होंने इस्लाम के बारे में बहुत कुछ पढ़ डाला और उन्हें अपनी परिकल्पनाओं और मानव प्रवत्ति के सर्वथा अनुकूल पाया तो उसे स्वीकार कर लिया। एक दिन जबकि पहले की तरह उनका पिता शराब के नशे में धुत्त उनकी मां की पिटाई करने वाला था, उन्होंने अपने बाप को समझाना शुरू कर दिया और मां को धीरज बंधाने लगी और बातचीत की तेजी में बता दिया कि वे इस्लाम स्वीकार कर चुकी हैं।
इस वंृत्तात को खुद सिंथिया, बल्कि आमिना की ज़बानी सुनिए:
मेरे माता-पिता के लिए मुसलमान शब्द अपरिचित न था। मैं नहीं जानती कि इस्लाम और इस्लाम के अनुयायियों के बारे में अमेरिकियों का रवैया बिना रंग-नस्ल क्यों शत्रुतापूर्ण और विरोधपूर्ण हैं। मेरी ज़बान से यह सुनने के बाद कि मैं मुसलमान हो चुकी हूं, मेरे मां-बाप को अत्यन्त आश्चर्य हुआ। ख़ासतौर पर मेरी मां को बहुत दुख हुआ। उनकी यह प्रतिक्रिया तब बहुत परेशान करने वाली थी। मैं उन्हें एक उत्पीडि़त औरत समझती थी। मेरा ख्य़ाल था कि मेरे मुसलमान होने पर वह ज्य़ादा शोर न मचाएगी, किन्तु हुआ इसके विपरीत। मेरे पिता के चेहरे पर घृणा, तिरस्कार, उपहास, लापरवाही की झलक दिखाई दे रही थी और मेरी मां लगातार बोलती जा रही थी। आज जब वह दृश्य याद आता है, तो मैं बेइख़्ितयार मुस्करा देती हूं, परन्तु उस समय मेरी प्रतिक्रिया भिन्न थी। मैं यह महसूस करने लगी थी कि मैनें इस्लाम स्वीकार करने का ऐलान कुछ जल्दी कर दिया। इसका कारण यह न था कि मेरे ईमान में कोई कमी थी, बल्कि यह कि मैने यह फैसला किया था कि जब तक मैं मुसलमानों के तौर-तरीकों को परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से अपना नहीं लेती, तब तक इस्लाम स्वीकार करने का ऐलान नहीं करूंगी। मैं उस क्षण बहुत भावुक हो गई थी। अपने मुसलमान होने का जि़क्र बड़े जोश और जज्बे से कर दिया। मेरे पिता बड़बड़ाते हुए बाहर चल गये। मेरी मां मुझे समझाने लगीं। मंैने कहा--मम्मी जो होना था हो चुका। मैं जो $कदम आगे बढ़ा चुकी हूं वह पीछे नहीं हटा सकती। मेरी मां ने और अधिक सख्ती से समझाना-ब़ुझाना शुरू किया। मंैने उनसे कहा कि वह अपना समय अकारण बर्बाद कर रही हैं। मैं मुसलमान हो चुकी हूं और अब कुछ नहीं हो सकता। मेरी मां ने सोचा शायद मैं जि़द कर रही या भावुक हो गयी हूं। उन्होंने अपना लम्बा भाषण अधूरा छोड़ा और मुझे अकेली छोड़कर चली गयी। मैं मुसलमान क्यों हुई? यह बात मुझसे कई लोगों ने पूछी है और मैं कई बार जवाब दे चुकी हूं। इसके बावजूद मैं समझती हूं कि मुझे इस सवाल का जवाब बड़े सुकून और इत्मीनान से देना चाहिए।--- मेरे घरेलू हालात अमेरिका में हबशियों की समग्र परिस्थिति से अधिक मेरी विवशता और अपंगता ने मुझे इस्लाम की ओर प्रेरित किया। इसका विवरण भी सुन लें।
एक अखबार में काम करने के कारण मैं प्रतिदिन मेलकॉम एक्स और मुसलमान होने वाले अश्वेतों के सुधारवादी आन्दोलन के विषय में पढ़ती थी। चूंकि पोलियो के कारण मैं विवश और अपंग हो चुकी थी और सिवाय अध्ययन के और मेरा कोई कार्य नहीं था। इसलिए मुझमें सोचने-समझने की आदत बहुत बढ़ गयी थी। जब मैं पढ़ती कि मेलकॉम एक्स और उनके स्वयंसेवक अपने साथियों से नशा-सेवन की लत छुड़ाने में सफल हो रहे हैं, तो मुझे बड़ी हैरत होती। मैं समझती कि यह मात्र एक समाचार है, जिसमें सच्चाई नहीं है। लेकिन फिर भी मैं सोचती कि यह समाचार किस हद तक झूठा हो सकता है? मेरे पास मेरे अपने इस सवाल का कोई जवाब नहीं था। मगर उस ज़माने में मैंने यह फैसला कर लिया कि मुझे इस्लाम के बारे मेें कुछ पढऩा चाहिए। मैंने कुछ पुस्तकें प्राप्त की और पढऩे लगी। इस्लाम के बारे में उन पुस्तकों ने मुझे अत्यन्त प्रभावित किया। जब मैंने यह पुस्तकें पढ़ लीं, तो मेरे दिल में कुरआन पढऩे का ख्य़ाल पैदा हुआ और मैंने अंग्रेजी में अनुदित कुरआन की एक प्रति प्राप्त कर ली। पवित्र कुरआन के इस अनुवाद ने मुझे एक अनुपम आत्मिक आनन्द प्रदान किया, जिसे मैं बयान नहीं कर सकती। आज मैं समझती हूं कि अगर कोई भी व्यक्ति दिलचस्पी, एकाग्रता और लगन से पवित्र कुरआन का अध्ययन करे तो वह इस पवित्र पुस्तक की सत्यता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। पवित्र कुरआन के अध्ययन ने मुझे कई दिन बेचैन रखा, मेरे दिल में एक अजीब तरह का भावनात्मक उतार-चढ़ाव पैदा हो गया था। जी चाहता कि अब मेलकॉम एक्स से मिलूं, मगर वे इस शहर से बहूत दूर थे। मैंने समाचार-पत्र के द्वारा यह पता लगाया कि यहां हमारे शहर में कौन ऐसा व्यक्ति है जो मुसलमानों का मार्गदर्शन करता है। उसका पता मुझे जल्द ही मिल गया। मैंने उस व्यक्ति, मुहम्मद यूसुफ को फोन किया और उससे मुलाकात के लिए समय मांगा। दूसरी ओर से मुझे बड़ी हमदर्द और नर्म आवाज़ सुनायी दी। मुहम्मद यूसुफ ने मुझसे कहा कि मैं जिस समय चाहूं उससे मिल सकती हूं। मैंने उन्हें बताया कि मैं कल दोपहर बाद उनसे मिलूंगी। समय निश्चित हो जाने के बाद मैंने संतोष की सांस ली। जब मैं अगले दिन मुहम्मद यूसुफ से मिलने गयी, तो वह मुझे देखकर कुछ परेशान हो गये। मैंने उनकी परेशानी के कारण को भांप लिया। वे किसी स्वस्थ और हष्ट-पुष्ट लड़की से मिलने की आशा रखते थे। जब उन्हें व्हील चेयर में बैठी चलने-फिरने में विवश मुझ जैसी लड़की दिखायी दी, तो वे कुछ परेशान से हो गये, लेकिन मेरी खुशदिली ने उनकी परेशानी को जल्दी खत्म कर दिया। मुहम्मद यूसुफ मेरी तरह ही अश्वेत थे। कभी उनका नाम जॉन ब्लेगडन था। अब वे मुहम्मद यूसुफ जैसे खूबसूरत नाम के मालिक थे। वे इस शहर के मुसलमानों के इमाम थे। वही मस्जि़द में नमाज़ पढ़ाते और वही कुरआन की शिक्षाओं पर प्रवचन करते थे। वे हमदर्दी भरे लहजे में मुझसे मेरे बारे में बातचीत करते रहे। बातों-बातों में बड़े गैर महसूस अन्दाज़ में उन्होंने मुझसे मेरे परिवार के बारे में सारी जानकारियां प्राप्त कर लीं। मैंने उनसे पूछा कि वे मुसलमान क्यों हुए थे? मुहम्मद यूसुफ मुस्करा दिए। फिर उन्होंने धीमे से बड़े मीठे लहजे में जवाब दिया- मैं इसलिए मुसलमान हुआ कि खुदा तआला कि यह मरजी थी कि वह मुझे सीधा रास्ता दिखाए। उनका वह जवाब मैं आज तक नहीं भूली हूं और जिन्दगी भर न भूल सकूंगी, क्योंकि मैं भी यही समझती हूं कि अल्लाह तआला जिस इन्सान को सीधे रास्ते पर लाना चाहता है, उसके दिल में इस्लाम के लिए मुहब्बत पैदा कर देता हैं। मुहम्मद यूसुफ ने मुझे बताया कि वे भी अश्वेतों के गरीब और पिछड़े इलाके में पैदा हुए थे। उन्होंने बचपन गरीबी और कंगाली में गुज़ारा। बड़े हुए तो एक ऐसे होटल में नौकर हो गये, जहां उन्हें बर्तन मांजने के लिए रखा गया था। मगर उनसे जरूरी काम और भी लिया जाता था। उन्हें कुछ पैकेट दे दिये जाते कि उन्हें अमुक जगह पहुंचा दें। इस काम के बदले उन्हें इनाम में एक-आधा डॉलर मिल जाता था। एक दिन उनके जी में आया कि एक पैकेट को खोलकर देखना चाहिए। जब उन्होंने खोलकर देखा तो उसमें उन्हें हशीश मिली। उन्होंने यह हशीश महंगे दामों में बेच दी और होटल वापस न गये। मगर होटल के प्रबंधकों ने उन्हें खोज निकाला, पैकेट मांगा और ज़ब पैकेट न मिला तो उनकी खूब पिटायी की। वे कई दिनों तक बिस्तर से न उठ सके। इस घटना के बाद वह गुनाहों की दुनिया में पहुंच गये। तीस वर्ष की उम्र तक उन्होंने ऐसा बुरा काम किया।...... हीरोइन और दूसरे नशीले पदार्थो का गुप्त धंधा करते-करते, $खुद भी इन नशीले पदार्थों के सेवन के आदी हो गये। उन्हें कई बार सज़ा हो चुकी थी। मगर वे सजा के भय से मुक्त हो चुके थे। एक बार जब वे जेल में थे तो कुछ लोग उनसे मिलने आये। ये स्वयंसेवक मुसलमान थे, जो कैदियों में इस्लाम का प्रचार कर रहे थे। उनके प्रचार से मुहम्मद यूसुफ अत्यन्त प्रभावित हुए और उनका जी चाहने लगा कि वह ससम्मान और निश्चिन्त जीवन व्यतीत करें। जब वे जेल से रिहा हुए तो बहुत बदल चुके थे। मगर उन्हें जि़न्दा रहने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही था। वे कुछ भी नहीं जानते थे। इसलिए उन्होंने यही सोचा कि अब फिर उन्हें आपराधिक जीवन व्यतीत करके ही पेट पालना पड़ेगा। वही स्वयंसेवक जिन्होंने जेल में उनके विचारों को बदलने की कोशिश की थी, उनसे मिले। उन्होंने उनके लिए रोज़गार का बन्दोबस्त किया। कुछ नकद रकम दी, ताकि जब तक उन्हें वेतन नहीं मिलता, वह इस रकम से अपना समय बिताएं। वे उन्हें अपने साथ रखते। इस तरह मुहम्मद यूसुफ जो कभी जॉन ब्लेगडन थे, मुसलमान हो गये। इस्लाम के साथ उनके लगाव का यह हाल था कि एक साल में उन्होंने कुरआन मजीद अरबी में पढ़ लिया। इस राह में उन्हें बहुत सी-दि़क्कतें और परेशानियां पेश आयीं। मगर वे किसी परेशानी से न घबराये।
कुरआन मजीद की शिक्षा के बाद वे इस्लामी तौर-तरीकों और जीवन-शैली को अपनाने में कामयाब हो गये। चार साल बाद उन्हें उस इलाके में मुसलमानों का इमाम बना दिया गया। इमाम बनने के बाद उन्होंने अपनी कोशिशों से ज़मीन के लिए चन्दा जमा किया और वहां एक छोटी-सी मस्जि़द बनवा दी। उस मस्जि़द के निर्माण में खुद उन्होंने और दूसरे मुसलमानों ने हिस्सा लिया था। वे ख़ुद मज़दूरी करते और उसकी मज़दूरी न लेते थे। मैं मुहम्मद यूसुफ की जि़न्दगी और उनकी बातों से अत्यन्त प्रभावित हुई और उनसे कहा कि मैं मुसलमान होना चाहती हूं। मुहम्मद यूसुफ साहब ने पहली बार मुझे भरपूर नज़रों से देखा और बोले, खुदा मुबारक करे, मगर मुसलमान होना बहुत मुश्किल हैं। मैं हर मुश्किल पर क़ाबू पाऊंगी। अलहम्दुलिल्लाह, उन्होंने कहा, क्या तुम्हें कलिमा और नमाज़ आती है? मैंने न में सिर हिलाया, तो उन्होंने मुझे एक छोटी-सी किताब दी। उसमें रोमन लिपि में कलिमा और नमाज़ लिखी हुई थी। कहने लगे, इसे याद कर लो और अगर हो सके तो तीसरे पहर को मेरे पास थोड़ी देर के लिए आ जाया करो। मैंने कुछ दिनों में न केवल कलिमा और नमाज़ याद कर ली बल्कि उनके अर्थ भी समझ लिये। उस दौरान मैं मुहम्मद यूसुफ से भी मिलती रही और उनसे इस्लाम धर्म के बारे में जानकारियां हासिल करती रही। जुमा का दिन था। मस्जि़द में मैंने सभी मुसलमानों के सामने कलिमा पढ़ा और मुसलमान हो गयी। मेरा नाम आमिना रख दिया गया। मुसलमान होने के बाद मैंने पहला काम यह किया कि खाने के साथ थोड़ी-बहुत शराब पीने की जो आदत थी उसे छोड़ दिया। मैं सिगरेट भी पी लिया करती थी। यह भी छोड़ दी। और मुसलमान औरतों जैसा लिबास सिलने के लिए दे दिया। मैं समझती थी कि जब मैं मुसलमान औरतों की तरह लम्बे चोग़े मेें अपना शरीर छिपाऊंगी और सिर को भी ढांपूंगी तो व्हील चेयर में बैठी हुई हास्यास्पद दिखायी दूंगी। मैंने हर ताना और मज़ाक का सामना करने का फैसला कर लिया। जब मैं पहली बार मुसलमान औरतों का लिबास पहनकर घर से निकलने लगी तो मेरी मां ने मुझे हैरत से देखा और बोली, सिंथिया, क्या पहन रखा है तुमने उसके चेहरे पर तंज़ था। मेरे पिता ने भी, जो रात भर शराब पीने के बाद अब कुर्सी पर बैठे ऊंघ रहे थे, अपनी लाल-लाल आंखें खोलकर मुझे देखा और कहक़हा लगाया। मैंने कहा,मम्मी याद रखिए, मेरा नाम आमिना है, सिंथिया नहीं। आ-मिना-क्या नाम हुआ यह भला, मां ने कहा , लड़की तेरा दिमाग तो नहीं चल गया। मैंने अपनी मां को समझाने की कोशिश की कि मैं उन्हें बता चुकी हूं और अब मुसलमान की तरह विधिवत जिन्दगी की शुरुआत कर चुकी हूं। तुम्हारी जगह जहन्नम में है...... इससे पहले कि वह कुछ और कहतीं मैंने उसकी बात काटकर कहा, मम्मी आपको मेरे मामले में दखल देने की ज़रूरत नहीं। अगर कोई बात करनी है तो जब में दफ्तर से आऊंगी तो कर लेना। इस समय मुझे देर हो रही है। मैं व्हील चेयर को धकेलती हुई बाहर निकल गयी। हबशियों की उस गन्दी बस्ती में मुझे जिसने उस लिबास में देखा, वह पहले तो हैरान हुआ, फिर मज़ाक उड़ाने लगा। मगर मैंने किसीकी एक न सुनी और अपनी राह चलती रही। जब मैं अपने अखबार के दफ्तर पहुंची तो वहां भी अत्यन्त तीखी प्रतिक्रिया हुई। बहुत-से लोग मेरे चारों ओर जमा हो गये। जब मैंने उन्हें बताया कि मैं मुसलमान हो गयी हूं और मुसलमान औरतें ऐसा ही लिबास पहनती हैं, तो कुछ लोग ख़ामोश हो गये और कुछ लोग बड़बड़ाते हुए चले गये। संयोग से उस दिन वेतन का दिन था। वेतन मिला तो मैंने उसका एक चौथाई हिस्सा अपने इलाके की मस्जि़द के में जमा करा दिया।
जब मैं घर लौटी तो मेरी मां मेरा इन्तज़ार कर रही थी। मेरे पिता भी घर पर मौजूद थे। मैं वेतन का आधा हिस्सा अपनी मां को दे दिया करती थी। उस रकम से मेरे पिता अपने नशे के लिए कुछ पैसे ऐंठ लिया करते थे। मैंने जब अपने वेतन की कुछ रकम अपनी मां को दी तो उसने हैरत से मुझे देखा और पूछा, तुमने इस बार दस डॉलर कम दिए हैं। हा,अब हर महीने आपको इतनी रकम मिलेगी। मैंने अपने वेतन का एक चौथाई मस्जि़द को देने का फैसला कर लिया है। मेरी यह बात सुनते ही वे मुझे, मुसलमानों और मस्जि़द को कोसने लगी। मैंने कोई जवाब देना उचित नहीं समझा और अपने कमरे में चली गयी। बहुत देर तक अपनी मां को बकते-झकते सुनती रही। बीच-बीच में मेरे पिता की आवाज़ भी सुनायी देती थी। अब सिंथिया हमारे हाथ से निकल गयी। मुसलमानों ने इसका दिमाग खराब कर दिया हैं। हमने तो कभी गिरजे को चन्दा नहीं दिया। यह वेतन का एक चौथाई मस्जि़द को देने लगी हैं। मेरे मां-बाप के नज़दीक मुसलमान लुटेरों से कम न थे, जो उनकी बेटी की कमाई लूटकर ले गये थे। धीरे-धीरे मैंने अपनी जि़न्दगी इस्लाम के नियमों और तौर-तरीकों के मुताबिक ढाल ली थी। वे लोग जो पहले मुझ पर उंगलियां उठाते थे, मुझसे लापरवाह हो गये। और फिर क्रिसमस का त्यौहार आ गया। हम चाहे कितने ही खराब और बदहाल क्यों न हों, क्रिसमस को ठाट-बाट से मनाने का इन्तिज़ाम ज़रूर करते हैं। क्रिसमस के दिन शराब पानी की तरह बहायी जाती है। जब मैंने मेहमानों के साथ शराब के प्याले को छूने से ही इन्कार कर दिया तो हमारे घर में $िकयामत बरपा हो गयी। पिता तो सुबह से नशे में धुत थे। मां भी दो-एक बार मेहमानों के साथ पी चुकी थी। नशे की हालत में वे मुझ पर बरसने लगे। मेहमान भी नशे में थे। वे भी, जो उनके मुंह में आया, बकने लगे।इन सबकी हालत दयनीय थी। मैंने सोचा कि मुझे इस कमरे से चले जाना चाहिए। मगर जब में अपनी व्हील चेयर को धकेल कर जा रही थी,तो एक मेहमान लडका और मेरे पिता मेरे पीछे लपके और व्हील चेयर के सामने खडे हो गये। मैंने कहा,रास्ता छोड़ दें,मुझे जाने दें। यह पी लो। फिर चली जाना, लड़के ने मेरे रास्ते से हटे बिना शराब का प्याला मेरे आगे किया। मैं लानत धिक्कार भेजती हंू इस पर। मेरे मुंह पर एक ज़ोरदार तमाचा लगा, जो मेरे पिता ने मारा था। मेरा सिर चकरा गया। आंखों में आंसू आ गये। मगर मेरे पिता और उस लड़के में तो जैसे शैतान की आत्मा घुस गयी थी। वे मुझे पीटने लगे। उन्होंने मुझे रूई की तरह धुन दिया। मैं चुपचाप यह अत्याचार सहती रही। वे गालियां बक रहे थे। नशे में उनके मुंह से झाग बह रहा था। जब वे थककर बैठ गये तो मैं किसी न किसी तरह अपने कमरे में पहुंच गयी। इस रात मैंने फैसला किया कि मुझे क्या करना है। मेरी पहली प्रतिक्रिया यह थी कि मुझे अपनी मस्जि़द के इमाम मुहम्मद यूसुफ को अपनी सारी विपदा सुनानी चाहिए। और फिर यह घर छोड़ देना चाहिए। लेकिन ज्यों-ज्यों मेरा $गुस्सा और जोश ठंडा होता गया, मेरी सोच बदलती गयी। मैंने सोचा कि मुझे अपनी परेशानियां लेकर मुहम्मद युसूफ के पास नहीं जाना चाहिए। उनका हल जरूर तलाश करना चाहिए और अपने माता-पिता के साथ ही रहना चाहिए। उनका मुझ पर अधिकार है और मेरा भी यह कर्तव्य बनता है कि मैं उनकी जि़न्दगी बदलने की कोशिश करूं। अत: उस रोज मैंने एक महत्वपूर्ण फैसला किया और अगले दिन मैंने अपने इस फैसले से मस्जि़द के इमाम मुहम्मद यूसुफ को सूचित कर दिया। मैंने अखबार की नौकरी छोड़ दी और स्वयंसेविका बन गयी। मुझे साधारण-सा गुज़ारा भी मिलने लगा। जब मेरे मां-बाप को मेरे इस फैसले का ज्ञान हुआ, तो वे बहुत सटपटाए। वे यह सोच भी नहीं सकते थे कि मैं अच्छी-भली नौकरी छोड़ दूंगी। मैंने उनसे कहा कि वे चिन्ता न करें। उनको उनका हिस्सा मिलता रहेगा। मैं अखबारों के लिए लिखूंगी और जो पारिश्रमिक मुझे वहां से मिलेगा, वह में उनको दे दिया करूगीं। मेरे इस व्यावहारिक जीवन का आंरभ उस समय हुआ जब मैं मुसलमान स्वयंसेविका बन गयी। मुहम्मद युसूफ ने मुझे बहुत-से निर्देश दिये और जिस काम के लिए मुझे चुना गया, उस राह के ख़तरों से मुझे अवगत किया। मुझे खुद भी अन्दाज़ा था कि यह रास्ता कांटों से भरा है। मगर इस्लाम ने मुझे साहस दिया। इसके कारण मैं किसी खतरे पर ध्यान नहीं दे रही थी। मैं जेलों में जाने लगी। वहां मैं कैदियों से मिलती।उनके सामने इस्लाम की महिमा बयान करती। उनको उनकी जि़न्दगी के घिनौने पहलू दिखाकर उनको बेहतर जि़न्दगी गुज़ारने की सलाह देती। कुछ कैदी समय काटने के लिए मेरी बातों को ध्यान से सुनते। कुछ मेरा मज़ाक उड़ाते। उनमें ऐसे लोग भी थे, जिन्होंने मेरी शारीरिक अपंगता पर भी कहकहे लगाये। मगर में तनिक भी भयभीत न हुई, न मेरी हिम्मत ने जवाब दिया। इन कैदियों में से एक हबशी कैदी अरबिन्तो भी था। उसने मेरी बातों का अच्छा प्रभाव ग्रहण किया और एक दिन कहने लगा, तुम बड़ी साहसी लड़की हो। अगर तुम वास्तव में चाहती हो कि बुराई का अन्त हो जाए तो बरनार्डो को खत्म कर दो। बरनार्डो कौन है? मैंने पूछा। बरनार्डो इस शहर के एक बड़े माफिया गिरोह का प्रमुख है। यही व्यक्ति है जो इस शहर में मादक द्रव्यों का एकाधिकारी है। अगर वह न हो तो इस शहर में लोगों को मादक-द्रव्य न मिले और लोग इसके आदी न हों। वह बड़ा खतरनाक आदमी है। आज मैं जिस हालत मैं पहुंचा हूं, उसका जिम्मेदार भी बरनार्डो है। मैं बरनार्डो से कैसे मिल सकती हूं। उसने मेरे कान में मुझे बरनार्डो का पता बता दिया। जब में जाने लगी, तो अरबिन्तो का लहजा बिल्कुल बदल गया था। वह अफसोस जताते हुए बोला, मुझसे गलती हुई कि मैंने तुमसे बरनार्डो का जि़क्र किया। तुम इन सारी बातों को भूल जाओ। तुम अन्दाज़ा नहीं कर सकती हो कि बरनार्डो कितना खतरनाक आदमी है। मगर मैं उससे मिलने का फैसला कर चुकी हूं, मैंने साहस के साथ कहा। तुम उससे मिलकर क्या करोगी? उसने पूछा। उसको सीधा रास्ता दिखाने की कोशिश करूंगी। वह हंसने लगा। उसके कहकहे दूर तक मेरा पीछा करते रहे। सुबह का समय था जब मैं वक्त तय किए बिना बरनार्डो के आलीशान घर के अन्दर दािखल हुई। उस घर को देखकर कोई व्यक्ति अनुमान नहीं कर सकता कि उस घर में रहने वाला व्यक्ति कोई बहुत बड़ा अपराधी है। तुम यहां क्या कर रही हो? एक नौकर ने मुझे रोककर पूछा। वह मेरे लिबास और मेरी व्हील चेयर को ध्यान से देख रहा था। मुझे मिस्टर बरनार्डो से मिलना है, मैंने कहा। तुम्हें? उसने कहकहे लगाकर कहा, मिस्टर बरनार्डो से मिलना इतना आसान नहीं। आखिर क्यों? मैंने कहा। वह भी इन्सान है और इन्सान इन्सान से मिला-जुला करते हैं। हम दोनों में तू-तू, मैं-मैं होने लगी। उसी समय एक अधेड़ उम्र का मज़बूत शरीर वाला आदमी एक कमरे से बाहर निकला और गुस्से से बोला, यह क्या हो रहा है और शोर क्यों मचा रखा है? नौकर ने उस आदमी के आगे सिर झुकाकर कहा, यह लड़की आपसे मिलने की जि़द कर रही थी। उसने पूछा-मुझसे क्या काम है? मैं आपसे एकान्त में बात करना चाहती हूं, मैंने कहा। बरनार्डो ने कुछ विस्मय से मेरी और देखा। फिर नौकर को वहां से जाने का इशारा किया। जब नौकर वहां से चला गया तो बरनार्डो ने बड़े अभिमान से कहा, मैं इस तरह किसी से मुलाकात नहीं करता हूं। तुम विक लांग हो, इसलिए रुक गया हूं। कहो, मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूं? मैंने उसकी और देखा और उसकी आखों में आंखे डालकर कहा, मिस्टर बरनार्डो क्या सचमुच आप इस विकलांग लड़की के किसी काम आना चाहते हैं? उसने जवाब देने से पहले कुछ सोचा फिर मुस्कराकर कहा, हां, कहो मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूं? मैंने फिर उसकी आंखों में आंखें डाल दीं। मैंने महसूस किया कि मिस्टर बरनार्डो कुछ बेचैनी महसूस कर रहा है। वह मेरी नज़रों से नजरे़ं चुरा था। मैंने कहा-मिस्टर बरनार्डो अल्लाह ने आपको सब कुछ दिया है। अब आपको हिदायत की जरूरत है, सच्ची हिदायत की। लड़की मैं नहीं जानता कि तुम कौन हो, मेरा वक्त बहुत कीमती है। दो मिनट में अपनी बात खत्म करो। मैंने जब बात शुरू की तो बरनार्डो का चेहरा ग़्ाुस्से से लाल हो गया। उसने गुस्से को दबाकर कहा, तुम पागल हो। निकल जाओ यहां से। तुम्हें किसने बताया है कि मैं यह काम करता हूं। मैं तुम्हें और तुमको बताने वाले को जि़न्दा न छा़ेडूगा। मैंने बड़े इत्मीनान से कहा, आपके इस गुस्से और जोश से ही जाहिर हो जाता है कि मुझे आपके बारे में जो सूचना मिली है वह ठीक है। तुम बकती हो। चली जाओ यहां से। मुझे तुम्हारी विकलांगता का ख्याल आ रहा है, नहीं तो.....। मैं जानती हूं मिस्टर बरनार्डो आप बहुत ताकतवर हैं। सारा शहर आपके चंगुल में फंसा हुआ है। ''आखिर तुम चाहती क्या हो? बरनार्डो ने गरजकर कहा। ''मैं चाहती हूं कि आप खुदा के बन्दों के फायदे के लिए अपना यह धंधा छोड़कर कोई और काम करें और अगर आपसे संभव नहीं तो फिर मुझ विकलांग लड़की पर दया करें। मुझे प्रतिदिन पांच मिनट मुलाकात का वक्त दे दिया करें।ÓÓ वह हैरत से मेरा मुंह ताकने लगा। फिर उसने कहकहा लगाया और बोला, ''तुम धुन की पक्की हो।...तुम कल फिर आ सकती हो इसी वक़्त।ÓÓ मैं वहां से निकली तो अत्यन्त संतुष्ट थी। बरनार्डो इटालवी मूल का था। दिल का खुला। उसको जिन्दगी में शायद ही मुझ जैसा कोई इन्सान मिला हो। वह मेरे व्यक्तित्व में रुचि लेने लगा। एक दिन के बाद दूसरा दिन...वह मुझे हर रोज बुलाता। मुझसे बातें करता। पांच मिनट की बातचीत की परिधि फैलकर घंटों तक पहुंच गयी। मैं उसके सामने इन्सानों का जिक्र करती। मादक द्रव्यों की विनाशकारिता बयान करती। इस्लाम की सत्यता का उल्लेख करती। धीरे-धीरे उसके विचारों में कुछ लचक पैदा होने लगी। ''आमिना! एक दिन उसने मुझसे कहा, ''मैं नही जानता कि तुम कौन हो? मुसलमान क्या होते हैं? मगर मैं एक बात जान गया हूं कि तुम मानव मनोविज्ञान को खूब समझती हो। ''इस्लाम इन्सानों का धर्म है, पूर्ण धर्म।Ó मैंने जवाब दिया, ''इसलिए इस्लाम मुसलमानों को मानव-मनोविज्ञान पर गहरी नजर रखने की हिदायत करता है। मैंने महसूस किया कि अब जब मैं उससे मिलने जाती हूं वह कुछ बेचैनी महसूस करने लगता है। उसने एक दिन मुझसे कहा, ''आमिना! वास्तव में इन्सान की जिन्दगी नश्वर है और इन्सान को दुनिया में अच्छे काम करने चाहिए। दूसरों का भला सोचना चाहिए। ''अलहम्दुलिल्लाह, मैंने जवाब दिया, ''खुदा का लाख-लाख शुक्र है कि यह बात आपके मन में बैठ गयी।
कुछ दिनों के बाद बरनार्डो ने अपना धंधा छोड़ दिया। वह सीधे रास्ते पर आ गया। उसने बिना हिचकिचाहट स्वीकार कर लिया कि वह माफिया गिरोह का सदस्य है। उसने माफिया के छिपे भेदों को खोलकर रख दिया। आपको याद होगा कि राष्ट्रपति फोर्ड के कार्यकाल में बरनार्डो के इस काम से अमेरिका में कितना तहलका मचा था! बरनार्डो ने पत्रकारों से कहा था, ''एक अपाहिज और चलने-फिरने से विवश लड़की ने मुझे यह उडऩशक्ति प्रदान की है कि मैंने बुराइयों की जंजीरों को तोड़ दिया है और स्वतंत्र वातावरण में उडऩे का साहस अपने अन्दर महसूस कर रहा हूं।ÓÓ
उस दिन मैं बहुत रोयी थी, जब मुझे खबर मिली कि बरनार्डो को जेल में गोली मार दी गयी है। उसको माफिया के आदमियों ने मार डाला था। उसका जिन्दा रहना उनके लिए खतरनाक साबित हो सकता था। वह एक ऐसा इन्सान था,जो सच्चाई की राह पर चल निकला था। वह जिन्दा रहता तो बड़ा सुधारक साबित हो सकता था। बरनार्डो के प्रायश्चित करने के कारण मुझे प्रेस ने बड़ी प्रसिद्धि दी थी। मेरे भाषण प्रकाशित होने लगे। पत्र-पत्रिकाओं में मेरे इंटरव्यू प्रकाशित हुए। टी.वी. और रेडियो पर मुझे बुलाया गया और मेरी सेवाओं की बड़ी प्रशंसा की गयी। विश्व हेवीवेट चैम्पियन मुहम्मद अली मुझसे मिलने आये। उन्होंने मेरी बड़ी प्रशंसा की। राष्ट्रपति फोर्ड ने मुझे ह्राइट हाउस में बुलाया और मेरी सराहना की। इस शोहरत और इज्जत के बावजूद मुझमें घमंड पैदा नहीं हुआ, क्योंकि घमंड अल्लाह को पसन्द नहीं है। इस्लाम ने मेरे जीवन में जो परिवर्तन पैदा किया,मैं सारी दुनिया में फैला देना चाहती हूं और अगर यह मेरे वश में नहीं तो मेरे दिल में यह इच्छा जरूर है कि इस्लाम की बरकतों से अमेरिका के अश्वेत लोग अवश्य लाभान्वित हों। मेरे पिता हर नशा छोड़ चुके हैं। मेरी मां मेरी इज्जत करती हैं, यद्यपि उन्होंने अपना धर्म नहीं छोड़ा। तथापि उनके जीवन में बड़ा परिवर्तन आ चुका है। पिछले कुछ वर्षों में मेरी कोशिशों से तीन सौ व्यक्तियों ने मादक-द्रव्यों से तौबा की है और इक्कीस मर्दों और औरतों ने इस्लाम ग्रहण किया है। मैं एक अपाहिज औरत हूं। मगर मैं अपने आपको अपाहिज नहीं समझती, क्योंकि मेरा ईमान है कि जो व्यक्ति मुसलमान हो जाए, वह कभी अपाहिज नहीं हो सकता, क्योंकि खुदा उसका सहारा बन जाता है। मेरी जिन्दगी इस्लाम को समर्पित हो चुकी है। मैं इस्लाम ही के लिए काम करूंगी और इस्लाम की रूह (आत्मा) इन्सानों में फूंक देना चाहती हूं जब भी कोई इन्सान बुराई का रास्ता छोड़ देता है, मैं तो समझती हूं कि इस्लाम की जीत हुई है।-तो यह है मेरी कहानी-सिंथिया से आमिना बनने की।

3 टिप्पणियाँ:

बेनामी ने कहा…
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Qasim Node ने कहा…

Aslamualaikum allah apko hamesha khush rakhe

Unknown ने कहा…

पढो तो कुरान कुरान