मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

एक महिला डॉक्टर का इस्लाम स्वीकारना

डॉ. अमीना कॉक्सन इंग्लैण्ड
अमीना कॉक्सन का पैतृक नाम एन.कॉक्सन हैं। वे डॉक्टर और न्यूरोलॉजिस्ट हैं तथा लन्दन की हार्ट स्ट्रीट में उनका क्लीनिक है। उन्होंने विस्तृत अध्ययन और चिन्तन-मनन के पश्चात 1985 ई। में इस्लाम स्वीकार किया। लेखक हनी शाह ने इनसे डाक द्वारा इस्लाम ग्रहण करने का कारण पूछा और प्राप्त जानकारियों को अपनी उल्लेखनीय पुस्तक Why Islam is Our only Choice? में सुरक्षित कर दिया, जिसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है:
मैं 11 अक्टूबर 1940 ई. को लन्दन के एक कैथोलिक घराने में पैदा हुई। मेरी मां एक बड़े धनी बाप की बेटी थी, जबकि पिता ब्रिटिश-अमेरिकन टुबैको कम्पनी के डायरेक्टर थे। हम दो भाई-बहन हैं। दोनों ने बोर्डिंग कैथोलिक स्कूल में शिक्षा ग्रहण की। भाई आजकल अमेरिका में एक प्रसिद्ध व्यापारी हैं। उनके तीन बच्चे हैं और वे कैथोलिक ईसाइ की तरह आज भी पाबन्दी से चर्च जाते हैं। मेरे पिता को टुबैको कम्पनी की नौकरी के सिलसिले में 1945 ई. से 1953 ई. तक आठ साल का समय मिस्र मे गुजारना पड़ा।
इस तरह बचपन के दो साल मुझे मुस्लिम देश मिस्र में रहने का मौका मिला और अचेतन रूप में मैं मिस्त्रवासियों के सामाजिक जीवन और सामान्य आचरण तथा रस्म-रिवाज से बहुत प्रभावित हुई। काहिरा की खूबसूरत मस्जिदों, उनकी मीनारों और विशेषकर अज़ान की आवाज़ ने मेरे दिलो-दिमाग पर गहरे प्रभाव डाले और अचेतन रूप से मेरा दिल उस और खिंचता चला गया। 1947 ई. में मैं इंग्लैण्ड वापस आ गयी और यहां एक प्राइमरी स्कूल में मेरा दाखिला करा दिया गया। 1953 ई. मे मेरे पिता भी मिस्त्र से लन्दन आ गये। और उनके मार्गदर्शन में मैं जीवन-क्षेत्र में आगे बढऩे लगी। में स्वभावत: मेहनती हूं। अत: मैंने हर परीक्षा में शानदार सफलता प्राप्त की और एम.बी.बी.एस के बाद रॉयल कॉलेज आफॅ मेडीसिन और यूनीवर्सिटी ऑफ लन्दन से न्यूरोलॉजी में पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री हासिल कर ली। इसके साथ ही मनोविज्ञानं कोर्स भी पूरा कर लिया। शिक्षा-समाप्ति के बाद शादी कर ली। बच्चे भी हुए, लेकिन दुर्भाग्यवश यह विवाह सफल न हो सका। मेरा पति-भौतिकवादी तथा-स्वार्थी था। वह बीवी-बच्चों को घरेलू खर्चे के लिए कुछ भी न देता और उलटे धौंस जमाता रहता। परिणामत: कुछ वर्षों के बाद उस व्यक्ति से मैंने तलाक ले ली। हनी शाहिद लिखते हैं कि 1978 ई. में कॉक्सन ने लन्दन की हार्ट स्ट्रीट में, जिसे मेडिकल रोड भी कहा जाता है,अपना क्लीनिक बना लिया है और प्राइवेट प्रेक्टिस शुरू कर दी। सौभाग्यवश आरंभ में ही कई मुसलमान रोगी महिलाओं से सम्पर्क स्थापित हुआ और वे यह देखकर बहुत हैरान हुइं कि भयानक रोग और गंभीर कष्ट की दशा में भी मुसलमान महिलाएं अत्यन्त साहस का प्रदर्शन करती थीं। प्रथमत: एक मुसलमान युवती अपनी बीमार मां को लेकर उनके क्लीनिक आई। डॉक्टर ने ऐसे ही सुरक्षा की दृष्टि से लड़की की जांच की तो पता चला कि वह तो स्तन के कैंसर से ग्रस्त हैं, लेकिन जब लड़की को इस भयानक रोग के बारे में बताया गया तो उसने तुरन्त कहा- अलहम्दुलिल्लाह यह अल्लाह तआला का भेद है कि मैं आपके पास आई और मुझे इस रोग के बारे में पता चला। डॉ अमीना के लिए यह अनुभव अत्यन्त आश्चर्यजनक था कि वह लड़की न घबरायी, न चिल्लायी। उसने अत्यन्त धैर्य और साहस से अल्लाह का शुक्र अदा किया और ऐसा विश्वास भी प्रकट किया कि निश्चय ही ईश्वर की अनुकम्पा से वह ठीक हो जाएगी। लड़की के इस रवैये से डॉक्टर बहुत प्रभावित हुइं। इस धर्म के प्रति उसके हदृय में आस्था पैदा होने लगी, जिसने एक कमज़ोर लड़की को उत्साह और धैर्य की एक विशिष्ट शक्ति प्रदान कर दी थी। इसी प्रकार 1983 ई. में उनका परिचय ओमान के सुल्तान काबूस की आदरणीया मां से हुआ। वे मधुमेह रोग से ग्रस्त थीं, किन्तु धैर्य और साहस का नमूना थीं। वह शानदार व्यक्तित्व वाली एक खूबसूरत महिला थीं, किन्तु प्रेम, दया, और क्षमाशीलता का नमूना भी थीं। हालांकि निर्दयी रोग ने उन्हें निचोड़कर रख्र दिया था लेकिन इसके बावजूद इनकी ज़ुबान पर कभी भूलकर भी गिला-शिकवा न आया। इस बुज़ुर्ग बीमार महिला के व्यवहार ने भी डॉ अमीना कॉक्सन को असाधारण रूप से प्रभावित किया और इस दृष्टि से वे गंभीरतापूर्वक इस्लाम के विषय में सोचने लगीं और कुछ समय के अध्ययन और सोच-विचार के बाद उन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया। इस प्रश्र के उत्तर में कि उन्होंने अपना पैतृक धर्म ईसाइयत क्यों छोड़ दिया? उन्होंने बताया, मैं पैतृक रूप से कैथोलिक चचेरी बहनें ननों के रूप में सेवा समर्पित कर रही थीं। मैं भी बीस साल की उम्र तक अपनी पैतृक आस्थाओं पर कायम रही, लेकिन जब सोचने-समझने की उम्र शुरू हुई तो उन आस्थाओं के विषय में शंकाएं, सिर उठाने लगीं। मज़बूत दीवारों में दरारं पैदा होने लगीं। अत: यह सोचकर मुझे अपने आपसे नफरत होने लगती कि ये मेरे निकृष्टतम पाप थे, जिनके कारण हज़रत मसीह को सलीब पर चढ़ाया गया और वे बहुत ही दर्दनाक मौत से दो-चार हुए। इसी तरह वह रात्रिभोज, जो हज़रत ईसा अलैहि० ने अपने साथियों के साथ खाया था, उसके बारे में सोचकर मुझे घृणा आने लगती की यह खाना वास्तव में हज़रत मसीह के मांस और रक्त मिश्रित हैं। त्रयवाद की समस्या तो मुझे बहुत ही परेशान रखती और खुदा को तीन हिस्सों में बंटा देखकर में भौंचक्का रह जाती। यह सोचकर भी मैं चिन्तित रहती कि मैं तो जन्मजात पापिन हूं। फिर हज़रत मसीह से कैसे मुहब्बत का दम भर सकती हूं। बाइबल और ईसाई धर्म की ये आस्थाएं मेरे मन में भरी रहती। जब भी अकेली होती, इन पर सोचने लगती और उलझन से मेरा सिर फटने लगता। अनायास सोचती की ये सारी बातें तो एकदम निराधार हैं, जिनका बुद्धि या प्रकृति से दूर का भी संबंध नहीं। फिर मैं अधिक समय तक इनसे सम्बद्ध कैसे रह सकती हूं? फिर विचार आता, कहीं मैं पथभ्रष्ट तो नहीं हो रही हूं ? कहीं मैं अपने धर्म से दूर तो नहीं जा रही हूं? परेशान होकर अनायास खुदा से दुआ करने लगती, ऐ खुदा मेरा मार्गदर्शन कर। सत्य का रास्ता मुझ पर खोल दे। अगर तूने मेरी मदद न की तो में तबाह हो जाऊंगी, कहीं की नहीं रहूँगी। अत: अल्लाह तआला ने मेरी दुआएं सुन ली। मेरी सहायता की और एक के बाद एक मैंने तीन स्पष्ट स्वप्र देखे, जिनमें कोई शंका न थी और मुझे विश्वास हो गया कि मार्गदर्शन के लिए मेरी बेचैनी और खोज के नतीजे में खुदा मेरा मार्गदर्शन कर रहा है। स्वप्र में मुझे बताया गया :1 अल्लाह तआला से लगाव पैदा करने के लिए मुझे किसी पादरी की ज़रूरत नहीं है। ।2 इस्लाम ही सत्य धर्म और सीधा मार्ग है। 3 हज़रत ईसा अलैहि० और हज़रत मुहम्मद सल्ल० परस्पर एकत्व रखते हैं। दोनों जन्नत में इकट्ठे हैं। और हज़रत ईसा अलैहि० में मुझे हज़रत मुहम्मद सल्ल० के संरक्षण में दे दिया है। इसमें कोई संदेह नहीं की मैं सत्य की खोज में बहुत परेशान और बेचैन थी, फिर यह भी ख्याल आता कि मुझे अपने पैतृक धर्म से दूर नहीं होना चाहिए, किन्तु उपर्युक्त सपनों ने जिस लक्ष्य की ओर संकेत किया वह इस्लाम का रास्ता था। मुसलमान रोगियों ने मेरे दिल में इस्लाम के लिए अत्यधिक सहानुभूति और आकर्षण पैदा कर दिया, विशेषकर उनका यह विश्वास कि सब कुछ खुदा की ओर से होता है और उसके हर काम में कोई न कोई भेद ज़रूर होता है, जबकि इसके विपरीत यूरोप में लोग हर अच्छे काम का क्रेडिट खुद लेते हैं, जबकि बुरे नतीजे को खुदा से जोड़ दिया जाता हैं। इस क्रम में मैं विशेषकर ओमान के सुल्तान काबूस अल सईद की माननीया माताजी से बेहद प्रभावित हुई। वे मेरी मरीज़ थी। बुढ़ापा और स्वास्थ्य की गड़बड़ी के बावजूद वे हर एक से मुस्कराकर मिलतीं और हर जरूरतमंद पर खुले दिल से दौलत न्योछावर कर देतीं। वह अत्यन्त कष्टग्रस्त थीं, लेकिन कभी भी उन्होंने शिकवा-शिकायत का अन्दाज नहीं अपनाया, बल्कि बात-बात पर वह अल्लाह तआला का शुक्र अदा करती और जब मैं पूछती कि बीमारी की इन्तिहाई तकलीफ में कौन-सी चीज़ उन्हें इत्मीनान और उम्मीद से जोड़े हुए है। तो वह श्रद्धा की गहरी अनुभूति के साथ अल्लाह तआला का नाम लेती। वह वही महान हस्ती है, जिसकी अनुकम्पा और मेहरबानी उन्हें निराश नहीं होने देती। वह पूरे विश्वास के साथ कहतीं, अल्लाह तआला करूणामय और दयावान है। वही मनुष्य को हर तरह की सुख-सुविधाएं प्रदान करता है, वही किसी युक्ति के कारण मुसीबत से दो-चार करता है। मैं उसकी प्रसन्नता पर खुश हूं और अपनी तकलीफ से परेशान नहीं हूं। वास्तव में वे एक आदर्श मुस्लिम महिला थीं। उन्होंने मुझे इस्लाम के बहुत करीब कर दिया। यद्यपि तीन स्पष्ट सपने देखने के बावजूद मैं अभी तक अपने आपको इस्लाम स्वीकार करने को तैयार न कर पायी थी, लेकिन रमज़ान आया तो मैं उनके कहने पर रोज़े रखने लगी और पहली बार सच्ची आत्मिक शान्ति से परिचित हुई। एक साल इसी तरह गुज़र गया। दूसरा रमज़ान आने वाला था कि कुवैत के एक मुसलमान परिवार से मेरा परिचय हुआ। यूसुफ अल ज़वावी, परिवार के मुखिया, बहुत बीमार थे। लेकिन खुदा पर बीमार और परिवार के शेष लोगों की आस्था और विश्वास को देखकर मैं फिर चकित रह गयी। ये लोग भी साहसिकता, धैर्य, दृढ़ता, प्रेम और सत्यनिष्ठा का अत्यन्त सुन्दर उदाहरण थे। पश्चिमी घरानों के विपरीत सब एक-दूसरे पर जान छिड़कते और परिवार के मुखिया के स्वास्थ्य लाभ के लिए कोई कसर बाकी न छोड़ते। मैंने अपने पेशे की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए बीमार का खास ख्य़ाल रखा। इसकी वे खूब सराहना करते। एक दिन कृतज्ञता प्रकट करते हुए युसूफ अल ज़वावी ने कहा, मैं आपकी सेवा और उपकारों का शुक्रिया कैसे अदा करूं ? जी चाहता है कि सारी दौलत आपके कदमों में ढेर कर दूं। जी चाहता है कि आपको अपनी बहू बना लूं, आपको अपने घर का सदस्य बना लूं। लेकिन मैं तो इनसे भी ज्यादा कीमती चीज़ की अभिलाषी हूं, मैंने जवाब में उत्सुकता पैदा की। वह क्या ? युसूफ और उनका सारा परिवार परेशान हो गया। आप मुझे मुसलमान बना लीजिए। अपने धर्म में शामिल कर लीजिए। मेरी बात सुनकर उस घराने का अजीब हाल हुआ। खुशी से उनकी चीखें निकल गयी थीं। यूसुफ की आखें अनायास छलक पड़ीं और सब लोग खुशी की असाधारण अनुभूति से निहाल हो गये। दूसरे दिन मैंने कलिमा तैयिबा पढ़ा और सारे रोज़े रखे। पूरे शौक से नमाजों में शामिल हुई। अलहम्दुलिल्लाह मुझे मेरी मंजि़ल मिल गयी।

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1 टिप्पणियाँ:

TRIPURARI ने कहा…

achha laga