रविवार, 23 नवंबर 2014

महिला एयरलाइन पायलट ने अपनाया इस्लाम

एक मुस्लिम पायलट होने के नाते मैं दुनिया को दिखाना चाहती हूं कि इस्लाम गुलामी और उत्त्पीडऩ का मजहब नहीं है जैसा कि कई लोग सोचते हैं और ना ही इस्लाम महिलाओं के कैरियर बनाने में बाधक है। इस सबके विपरीत आज मैं जिस मुकाम पर हूं, अल्लाह ही की मदद और करम से हूं।
मेरा नाम आयशा जिबरील अलेक्जेंडर है। रोमन कैथोलिक परिवार, स्कूल और यूनिवर्सिटी में मेरी परवरिश और शिक्षा-दीक्षा हुई। धर्म में शुरू से ही मेरी दिलचस्पी रही है और मैं अक्सर कैथोलिक मत के धर्मगुरुओं से सवाल करती रहती थी। लेकिन जब-जब मैंने ईसाईयत में ट्रिनिटी (तीन खुदा) पर सवाल खड़ा किया तो मुझे  स्कूल की नन हर बार यही जवाब देती थीं कि इस मामले में सवाल करके तुम पाप कर रही हो और तुम्हें बिना कोई सवाल किए अपनी आस्था बनाए रखनी चाहिए। मैं इस तरह के सवाल करने से डरने लगी और इसी के चलते मैं इसी आस्था और विश्वास के बीच बढ़ी हुई।
सन् 2001 में इस्लाम से मेरा पहली बार सामना हुआ जब मैंंने एक मुस्लिम मालिक की कैनेडियन कंपनी में काम करना शुरू किया। यहां इस्लाम से मेरा पहला परिचय हुआ। लेकिन मैं युवा थी और काम और कैरियर के प्रति पूरी तरह समर्पित थी, इस वजह से मैें धर्म से जुड़े सवालों को नजरअंदाज करते हुए अपना पूरा ध्यान अपने कैरियर को बनाने में देने लगी। परिवार में मेरी 61 वर्षीय मां और 93 वर्षीय दादी थी। मेरा परिवार कोलम्बिया से यहां आकर बसा था, मैं इस परिवार की जिम्मेदारी निभाने में जुट गई। इन दोनों महिलाओं ने मुझे  ईश्वर के प्रति प्यार और सम्मान करना सिखाया। इस्लाम की ओर मेरी यात्रा इन महिलाओं की इस शिक्षा के साथ शुरू हुई कि मैं बिना ईश्वर पर यकीन किए कुछ नहीं कर सकती। उन्होंने मुझे  ईश्वर का सम्मान करने की शिक्षा दी।
मेरी 2003 में शादी हुई। बदकिस्मती से इस शादी ने मुझे  घरेलू हिंसा का शिकार बना दिया। लेकिन मेंरे इस दुखद वक्त के बीच मुझे  एक प्यारा सा बेटा हुआ जो अभी आठ साल का है। मेरा पति ईश्वर पर यकीन नहीं रखता था और अपनी ख्वाहिशों के मुताबिक अपनी जिंदगी गुजारा करता था। उसने मुझे  भी ईश्वर, यहां तक की ईसाईयत से भी दूर ही रखा। यह मेरी जिंदगी का सबसे दुखद दौर था लेकिन 2005 में एक दिन मैं अपनी मां की मदद से इस मुश्किलभरे दौर से बाहर निकल आई, मैंने अपने पति को छोड़कर अपने पुत्र और मां के साथ जिंदगी को आगे बढ़ाया। मैें अपना अच्छा कैरियर बनाने के लिए कठिन परिश्रम में जुट गई क्योंकि अब परिवार का पूरा दारोमदार मुझ पर ही था।
मेरे मौत के बाद का जीवन?
विमानचालन के पेशे ने मुझे  कई बेहतर अवसर दिए। इन अवसरों में कई तो बहुत दिलचस्प थे। इस बीच मुझे  मलेशिया में रहने का मौका भी मिला। मलेशिया एक ऐसा देश जहां तीन धर्मों का प्रभाव देखने को मिलता है। मुख्य रूप से इस्लाम, हिंदू धर्म और बौद्ध  धर्म.

मंगलवार, 16 सितंबर 2014

पूर्व अमेरिकी नौसैनिक ने कुबूल किया इस्लाम


अमेरिकी पूर्व नौसैनिक जीनेशा  की इस्लाम अपनाने की दास्तां।
जीनेशा बिंगम (जीनेशा ने इस्लाम अपनाने के बाद आइशा नाम रखा है) अमेरिकी नौसेना में एक सैनिक के रूप में कार्यरत्त  थी। जीनेशा की जिंदगी में कई तरह के उतार चढ़ाव आए। उनका जीवन बाल्यवस्था में यौन शोषण से गुजरते हुए, फिर अफगानिस्तान के युद्ध क्षेत्र से लास वैगास के नाइट क्लब होते हुए अस्पताल के बिस्तर पर इस्लाम अपनाकर सुकून हासिल करते हुए आगे बढ़ता है। 
जीनेशा की जुबां से जानिए उनकी इस्लाम अपनाने की कहानी।
मेरा नाम जीनेशा बिंगम (इस्लाम अपनाने के बाद जीनेशा बिंगम) है। मैं मोरमन कैथोलिक ईसाई धर्म में पैदा हुई। मैं पच्चीस साल की हूं। मैं अमेरिका के लास वेगास शहर में जन्मी,पली बढ़ी और कॉलेज की पढ़ाई की।
मेरा पारिवारिक माहौल बेहद गंदा था। मेरे पिता अक्सर मुझे झिाड़कते और पीटते थे। मेरी मां मुझे उनके उत्त्पीडऩ से बचाने में लगी रहती थी। पिता मेरी मां की भी पिटाई करते थे। मेरे दादा यौनाचारी थे। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि  वे मुझे अपनी हवस का शिकार बना सकते हैं। मेरे दादा ने मेरी मां, मेरी बहिन और मेरे साथ बलात्कार किया। जब भी मेरे पिता शराब पीए हुए होते तो हम समझ लेते थे कि घर में हम में से कोई ना कोई जख्मी जरूर होगा। मेरे पिता मुझे लज्जित करने के लिए मेरे रिश्तेदारों और मित्रों के सामने बुरी तरह पीटते थे। मैं अक्सर सोचती ईश्वर मेरे साथ आखिर ऐसे क्यों होने दे रहा है। ऐसे उत्पीड़क और घुटनभरे माहौल में मैं बड़ी  हुई। जब मैं चौदह साल की हुई तो मेरी मां हम भाई बहिनों को लेकर घर छोड़कर आ गई। जिस रात हम निकले हमारे पिता ने हमें गाड़ी से कुचलने की कोशिश की। पिता से छुटकारा लेकर हम पांचों एक महान शख्स की शरण में चले गए। उस शख्स ने हम भाई-बहिनों को अपनी संतान की तरह रखा। यहां हमें ऐसा लगा मानों हम ईश्वर की कृपा में आ गए। यह शख्स नास्तिक होने के बावजूद भला आदमी था।
इस बीच मैंने हाई स्कूल पास किया और मैं नौ सेना में भर्ती हो गई। मैं छठी मेरीन बटालियन की एक टुकड़ी में रेडियो ऑपेरटर थी। यह बटालियन अमेरिका की सबसे ज्यादा प्रतिष्ठित बटालियन होने के साथ ही खतरनाक जंग में हिस्सा लेने की काबिलियत रखती थी। हमारी बटालियन को मार्च 2008 में अफगानिस्तान के गार्मसिर में तालिबान से लडऩे के लिए भेजा गया। हमारी तालिबानियों से चार महीने तक  जंग चलती  रही। इसी जंग में हमारी एक साथी को गोली लगी। हमें आदेश मिला कि उस साथी की मदद की जाए ताकि उसे मेडिकल सहायता उपलब्ध कराई जा सके। दोनों तरफ गोलीबारी के बीच हम अपने साथी को बचाने की कोशिश के बीच ही एक गोली मेरे चेहरे के नजदीक से दनदनाती हुई गुजरी। गोली नजदीक से गुजरने से मुझे दो दिनों तक अपने बाएं कान से कुछ भी सुनाई नहीं दिया। मुझे लगा मानो मौत मुझे छूकर चली गई हो। हमारे टीम लीडर ने हमें बता रखा था कि युद्ध के मोर्चे पर किसी को भी नास्तिक नहीं रहना चाहिए। मैं गोलीबारी के बीच आगे बढ़ती रही और ईश्वर से प्रार्थना करती रही कि वह मेरी हिफाजत करे। हालांकि सच्चाई यह है कि  उस वक्त ईश्वर में मेरी सच्ची आस्था नहीं थी। हम उस घायल नौसेनिक को स्टे्रचर पर लेकर आगे बढ़े। मैंने उस घायल सैनिक को देखकर महसूस किया मानो उसकी आत्मा उसके शरीर को छोड़कर बाहर आ रही हो।

बुधवार, 25 जून 2014

रूस की सिस्टर अलेना ने अपनाया इस्लाम

मैं हिजाब में खुद को बेहद कम्फर्ट फील करती हूं-अलेना

उनतीस वर्षीय अलेना काटकोवा रूस के साइबेरिया की है, लेकिन वे न्यूजीलैंड में कॉल सेंटर ऑपरेटर के रूप में काम करती है। जानिए उन्हीं से आखिर क्यों अपनाया उन्होंने इस्लाम।
मेरा जन्म रूस में हुआ। रूस जहां कोई धार्मिक माहौल नहीं था। मैं सन् 2008 में न्यूजीलैंड आ गई। न्यूजीलैंड एक ऐसा मुल्क है जहां कई देशों के लोग रहते हैं,जहां विभिन्न तरह की सभ्यताएं और धर्म हैं। जब मैंने न्यूजीलैंड की ऑकलैंड यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलोजी में पढ़ाई शुरू की तो वहां मेरी मुलाकात कई ऐसे स्टूडेंट्स से हुई जो मुसलमान थे। मैंने उत्सुकता और जिज्ञासा से इस्लाम संबंधी उनसे कई तरह के सवाल पूछना शुरू किया। उनसे पूछे जाने वाले सवाल दर सवाल का ही नतीजा है कि मैं इस्लाम अपनाकर मुसलमान हूं। इस्लाम ने मेरी जिंदगी को बिल्कुल ही बदल कर रख दिया। इस्लाम ने मुझे ईमानदार बना दिया और खासतौर पर मेरे व्यक्तित्व में बेहतर निखार आया।  इस्लाम अपनाने से पहले मैं दोस्तों के साथ पार्टी-क्लब वगैरह में खूब जाया करती थी, लेकिन इस्लाम अपनाने के बाद मैंने यह सब छोड़ दिया है।
मुसलमान बनने के बाद जबसे मैंने इस्लामी परिधान हिजाब पहनना शुरू किया है, लोगों का मेरे साथ व्यवहार बदल गया और वे मुझे पहले के बजाय अधिक इज्जत और सम्मान देने लगे।   इस्लाम के मुताबिक हम मुस्लिम महिलाएं मर्दों से हाथ नहीं मिला सकती, ना गले मिल सकती और ना ही चुंबन ले सकती हैं, यही वजह है कि मैं इन सबसे बचती हूं। मैं किसी पुरूष से मिलती भी हूं तो कहती हूं,' आपसे मिलकर अच्छा लगा, लेकिन माफी चाहूंगी कि मेरा मजहब आपसे हाथ मिलाने की मुझे इजाजत नहीं देता है।' वे समझ जाते हैं और मुस्कराने लगते हैं । वैसे भी न्यूजीलैंड एक उदार मुल्क है। हालांकि मुझे अपने परिवार की तरफ से कुछ चुनौतियां मिली, मेरी छोटी बहिन अभी भी यह समझ नहीं पाई और ना ही स्वीकार पाई है कि मैं मुसलमान बन गई हूं।
रूस में तो लोग अभी भी मुसलमानों को आतंकवादी के रूप में ही समझते हैं। दरअसल मीडिया मुसलमानों को इसी रूप में प्रस्तुत करता है। मैं इस्लामी पहनावे हिजाब में खुद को बेहद कम्फर्ट फील करती हूं। मैं अपना जॉब बदलने की सोच रही हूं क्योंकि मैं टीचर के रूप में योग्यता रखती हूं और पहल मैं टीचर बनने की ही सोचती थी।

रविवार, 8 जून 2014

बिकनी नहीं, इस्लामी पर्दा है औरत की आजादी का प्रतीक: सारा बॉकर

अमेरिका की पूर्व मॉडल, फिल्म एक्टे्रस, फिटनेस इंस्ट्रेक्टर सारा बॉकर ने अपनी ऐशो आराम और विलासितापूर्ण जिंदगी को छोड़कर इस्लाम अपना लिया। बिकनी पहनकर खुद को पूरी तरह आजाद कहने वाली सारा अब खुद इस्लामी परिधान 'हिजाब' पहनती हैं और कहती है कि महिला की सच्ची आजादी पर्दा करने (हिजाब) में है ना कि आधे -अधूरे कपड़े पहनकर अपना जिस्म दिखाने में।
पढि़ए सारा बॉकर की जुबानी कि कैसे वो अपने ठाट-बाठ वाली जिंदगी को छोड़कर इस्लाम की शरण में आई।

मैं अमेरिका के हार्टलैंड में जन्मी। अपने आसपास मैंने ईसाई धर्म के विभिन्न पंथों को पाया। मैं अपने परिवार के साथ कई मौकों पर लूथेरियन चर्च जाती थी। मेरी मां ने मुझे चर्च जाने के लिए काफी प्रोत्साहित किया और मैं इस तरह लूथेरियन चर्च की पक्की अनुयायी बन गई। मैं ईश्वर में पूरा यकीन करती थी लेकिन चर्च से जुड़े कई रिवाज मुझे अटपटे लगते थे और मेरा इन बातों पर भरोसा नहीं था जैसे कि चर्च में गाना, ईसा मसीह और क्रॉस की तस्वीरों की पूजा और 'ईसा की बॉडी और खून' को खाने की परंपरा।
धीरे-धीरे मैं अमेरिकी जीवनशैली में ढलती गई और और आम अमेरिकी लड़कियों की तरह बड़े शहर में रहने, ग्लेमरस लाइफ-स्टाइल, ऐशो आरामपूर्ण जिंदगी पाने की तलब मुझमें बढ़ती गई। भव्य जीवनशैली की चाहत के चलते ही मैं मियामी के साउथ बीच में चली गई जो कि फैशन का गढ़ था। मैंने वहां समुद्र के किनारे घर ले लिया। अपना ध्यान खुद को खूबसूरत दिखाने पर केन्द्रित करने लगी। मैं अपने सौदंर्य को बहुत महत्व देती थी और ज्यादा से ज्यादा लोगों का ध्यान खुद की ओर चाहती थी। मेरी ख्वाहिश रहती थी कि लोग मेरी तरफ आकर्षित  रहे। खुद को दिखाने के लिए मैं रोज समुद्र किनारे जाती। इस तरह मैं हाई फाई लाइफ स्टाइल और फैशनेबल जीवन जीने लगी। धीरे-धीरे वक्त गुजरता गया लेकिन मुझे  एहसास होने लगा कि जैसे-जैसे मैं अपने स्त्रीत्व को चमकाने और दिखाने के मामले में आगे बढ़ती गई, वैसे-वैसे मेरी खुशी और सुख-चैन का ग्राफ नीचे आता गया। मैं फैशन का गुलाम बनकर रह गई थी। मैं अपने खूबसूरत चेहरे का गुलाम बनकर रह गई थी। मेरी जीवनशैली और खुशी के बीच गैप बढ़ता ही गया। मुझे अपनी जिंदगी में खालीपन सा महसूस होने लगा। लगता था बहुत कुछ छूट रहा है। मानो मेरे दिल में सुराख हो। खालीपन की यह चुभन मेरे अंग-अंग को हताश, निराश और दुखी बनाए रखती थी। किसी भी चीज से मेरा यह खालीपन और अकेलापन दूर होता नजर नहीं आता था। इसी निराशा और चुभन के चलते मैंने शराब पीना शुरू कर दिया। नशे की लत के चलते मेरा यह खालीपन और निराशा ज्यादा ही बढ़ते  गए। मेरी इन सब आदतों के चलते मेरे माता-पिता ने मुझसे दूरी बना ली। अब तो मैं खुद अपने आप से भागने लगी।
फिटनेस इन्सट्रक्टर आदि के काम में मुझे जो कुछ पैसा मिलता वह यंू ही खर्च हो जाता। मैंने क/ई के्रडिट कार्ड ले लिए, नतीजा यह निकला कि मैं कर्ज में डूब  गई। दरअसल खुद को सुंदर दिखाने पर मैं खूब खर्च करती थी। बाल बनाने, नाखून सजाने, शॉपिंग माल जाने और जिम जाने आदि में सब कुछ खर्च हो गया। उस वक्त मेरी सोच थी कि अगर मैं लोगों के  आकर्षण का केन्द्र बनूंगी तो मुझे  खुशी मिलेगी। लोगों के देखने पर मुझे  अच्छा लगेगा। लेकिन इस सबका नतीजा उल्टा निकला। इस सबके चलते मेरे दुख, निराशा और बेचैनी का ग्राफ बढ़ता ही गया।
इन सब हालात से उबरने और इसका इलाज तलाशने के लिए मैंने सालों लगा दिए। मैंने सुकून हासिल करने के लिए मनोविज्ञान, किताबों और एक्सरसाइज आदि का  भी सहारा लिया। मुझे  इनसे अपने जीवन को सही तरीके से शुरू करने की शक्ति मिली। सुख चैन हासिल करने के लिए मैंने विभिन्न धर्मों का अध्ययन करना शुरू किया। अध्यात्म में दिलचस्पी लेने लगी। मैंने ध्यान और योग को भी समझने की कोशिश की। मैं इस तरफ ज्यादा ही जुट गई, मैं चाहती थी कि मुझे  यह स्पष्ट हो जाए कि मुझे  क्या करना चाहिए और किस तरह करना चाहिए। मैं अपनी जिंदगी के लिए एक तरीका और नियम चाहती थी लेकिन मैं इस तथाकथित उदारवादी और स्वच्छंदतावादी माहौल में यह हासिल नहीं कर पाई। इसी दौरान अमेरिका में 9/11 वाला आतंकवादी हमला हुआ। इस घटना के बाद इस्लाम पर चौतरफा हमले होने लगे। इस्लामी मूल्यों और संस्कृति पर सवाल उठाए जाने लगे। हालांकि उस वक्त इस्लाम से मेरा दूर-दूर तक का वास्ता भी ना था। इस्लाम को लेकर उस  वक्त मेरी सोच थी कि जहां स्त्रियों को कैद रखा जाता है, पीटा जाता है तथा यह दुनियाभर में आतंक का कारण है। इस बीच मैं अंतरराष्ट्रीय संबंधों का भी अध्ययन करने लगी। अमेरिकी इतिहास और इसकी विदेश नीति का बदसूरत सत्य को भी जाना। जातीय भेदभाव और जुल्म को देखकर मैं कांप गई। मेरा दिल टूट गया। दुनिया के दुखों ने मुझे  दुखी बना दिया। मैंने तय किया कि दुनिया के विभिन्न हिस्सों में लोगों पर हो रहे जुल्म के खिलाफ मुझो भी कुछ करना चाहिए। मैं इंटरनेट के जरिए हाई स्कूल और कॉलेज के स्टूडेंट्स को मध्यपूर्व के लोगों के साथ की जा रही अमेरिकी नाइंसाफी और अत्याचार के बारे में जानकारी देने लगी। यही नहीं मैं स्थानीय कार्यकत्र्ताओं को साथ लेकर इराक के खिलाफ होने जा रहे अमरीकी युद्ध के विरुद्ध प्रदर्शन में जुट गई। अपने इसी मिशन के दौरान में एक अद्भुत शख्स से मिली, जो मुसलमान था। वह भी इराक युद्ध के खिलाफ प्रदर्शन में लगा हुआ था। इससे पहले मैंने ऐसे किसी शख्स को नहीं देखा जो अपने मिशन के प्रति इस तरह जी जान से जुटा हो। वह इंसाफ और इंसानी हकों के लिए कार्यरत था। उस व्यक्ति ने इस मिशन के लिए अपनी एक संस्था बना रखी थी। मैं भी उसकी संस्था से जुड़ गई। उसके साथ काम करने के दौरान मैंने उससे इस्लामी सभ्यता, पैगम्बर मुहम्मद सल्ल. और उनके साथियों के कई किस्से सुने। इससे पहले मैंने इनके बारे में ऐसा कुछ नहीं सुना था। यह  सुनकर मैं दंग रह गई। मैं इन बातों से बेहद प्रभावित हुई। मैं इस्लाम से प्रभावित होकर इसका अध्ययन करने लगी और मैंने कुरआन भी पढ़ी। कुरआन की शैली और अंदाज ने मुझो अपनी तरफ खींचा।  मैंने महसूस किया कि कुरआन इंसान के दिल और दिमाग पर गहराई से असर छोड़ता है। दरअसल जिस सच्चाई की मुझे  तलाश थी वह मुझो इस्लाम में मिली। बावजूद इसके शुरू में इस्लाम को लेकर मेरे दिल में कुछ गलतफहमियां थीं जैसे मैं समझ नहीं पाई थी कि आखिर मुस्लिम औरतें पूरा बदन ढकने वाली यह अलग तरह की पोशाक क्यों पहनती हैं? मैं सोचती थी कि मैं कभी इस तरह की पोशाक नहीं अपनाऊंगंी। उस वक्त मेरी सोच बनी हुई थी कि मैं वह हूं जो सबको दिखती हूं, अगर दूसरे लोग मुझे  देख ही नहीं सकेंगे तो आखिर मेरा अस्तित्व ही कहां बचा? मुझे  लगता था खुद को दिखाना ही मेरी पहचान और अस्तित्व है। अगर दूसरे लोग मुझे  देख ही नहीं सकते तो फिर मेरा अस्तित्व ही कहां रहा? मैं सोचती थी आखिर वे कैसी स्त्रियां हैं जो सिर्फ  घर में रहे, बच्चों की ही देखभाल करे और अपने पति की सुने। ऐसी औरतों का आखिर क्या अस्तित्व है? अगर वह घर के बाहर जाकर खुद की पहचान ना बनाए तो आखिर क्या जिंदगी हुई ऐसी औरतों की? पति की स्वामीभक्त बने रहने से आखिर क्या मतलब?
मैंने महिलाओं से जुड़े अपने इन सभी सवालों के जवाब इस्लाम में पाए। ये जवाब तर्कसंगत, समझ में आने वाले और महत्वपूर्ण थे। मैंने पाया कि इस्लाम एक धर्म ही नहीं जिंदगी जीने का तरीका है। इसमें सब तरह के इंसानों के लिए हर मामले में गाइड लाइन है। जिंदगी से जुड़े हर एक पहलू पर रोशनी डाली गई है। छोटी-छोटी बातों में भी दिशा निर्देश है जैसेे-खाना कैसे खाना चाहिए? सोना कै से चाहिए? आदि आदि। मुझे  यह सब कुछ अद्भुत लगा। यह सब कुछ जानने के बावजूद मैंने खुद को इस्लाम को समर्पित नहीं किया। दरअसल इस्लाम के मुताबिक चल पाना मुझे  मुश्किल लग रहा था। इसमें जिम्मेदारी बहुत थी। मैं स्वभाव से एक जिद्दी किस्म की लड़की थी और ऐसे में ईश्वर के प्रति पूरी तरह समर्पण मेरे लिए मुश्किल था।
जनवरी 2003 की बात है। सर्द रात थी। मैं वाशिंगटन डीसी से प्रदर्शन करके बस से लौट रही थी। मैं सोचने लगी-मैं जिंदगी के कैसे चौराहे पर खड़ी हूं। मैं अपने काम से नफरत करती हूं, पति को छोड़कर मैं अलग हो गई हूं, जंग के खिलाफ लोगों को एकत्र करते-करते मैं ऊब गई हूं,। मेरी उम्र 29 साल थी लेकिन मेरे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आखिर मैं करूं तो क्या करूं? मैं पूरी तरह टूट चुक ी थी। मैं रोने लगी और अपने आप से सवाल करने लगी-मैं एक अच्छी इंसान बनना चाहती हूं और इस दुनिया को भी अच्छा बनाने की कोशिश करना चाहती हूं लेकिन सोचती थी आखिर कैसे हो यह सब कुछ? आखिर मुझे  करना क्या चाहिए? मुझे  अपने अंदर से ही इसका जवाब मिला-मुसलमान बन जाओ। यही है कामयाबी का रास्ता। मेरे दिल में यह जवाब आते ही मुझे  एक अलग ही तरह के सुकून और चैन का एहसास हुआ। मैं खुशी और उत्साह से भर गई। मानो मेरे ऊपर शांति की चादर छा गई हो। मुझे  लगा मुझे  अपनी जिंदगी का मकसद मिल गया और जिंदगी जीने का कारण भी। जिंदगी तो जिंदगी ही है, यह इतनी आसान भी नहीं है लेकिन मेरे पास तो जीने के लिए अब मार्गदर्शक पुस्तक कुरआन है। एक सप्ताह बाद एक मस्जिद की नींव लगाने के लिए इकट्ठा हुए लोगों के सामने मैंने कलमा ए शहादत पढ़कर इस्लाम अपना लिया। मैंने स्वीकार किया कि अल्लाह एक ही है, उसके अलावा कोई इबादत करने लायक नहीं है और मुहम्मद (उन पर शांति हो) अल्लाह के बंदे व रसूल हैं। वहां सभी मुस्लिम बहनों ने मुझे  गले लगाया। मेरी आंखों में खुशी के आंसू थे।
मैं दूसरे दिन बाजार से इस्लामी परिधान हिजाब खरीद लाई और उसी दिन से मैंने इस्लामी पोशाक पहनना शुरू कर दिया। इस्लामी परिधान में मैं उसी रास्ते से गुजरती थी जिस पर कुछ दिन पहले मैं शॉटर्स और बिकनी पहनकर गुजरा करती थी। हालांकि उस रास्ते में लोग, शॉप्स, चेहरे वही थेेेे लेकिन  एक चीज जुदा थी और वह थी मुझे  मिलने वाली इज्जत और सुकून। उस गली में जो चेहरे मेरे जिस्म को शिकार के रूप में देखते थे, वे अब मुझे  नए नजरिए और सम्मान के साथ देखने लगे।  मैंने फैशनेबल सोसायटी के ऊपरी दिखावे के फैशन की जंजीरों को तोड़ दिया जो मुझे  गुलाम बनाए हुए थी। सच्ची बात तो यह है कि मुझे  एहसास हुआ कि मानो मेरे कंधों से बहुत बड़ा बोझ उतर गया हो। मेरे ऊपर दूसरों के सामने अच्छा दिखने का दबाव और सोच मेरे जेहन से निकल चुकी थी। कई लोग मुझे  आश्चर्य से देखते, कुछ दया की दृष्टि से और कुछ जिज्ञासा से। सच्चाई यह है कि इस्लामी पोशाक पहनने के बाद मुझे  लोगों के बीच इतना आदर और सम्मान  मिला जो मुझे  आज से पहले कभी नहीं मिला था। यह तो अल्लाह ही का करम था। जिस करिश्माई मुस्लिम शख्स ने मेरा इस्लाम से परिचय कराया था बाद में मैंने उसी से  शादी कर ली।
मेरे इस्लामी जिंदगी अपनाने के थोड़े ही दिनों बाद खबरें आने लगीं कि कुछ राजनेता और कथित मानवाधिकार कार्यकत्र्ता बुर्के का विरोध कर इस्लामी परिधान को महिलाओं के दमन और उन पर जुल्म का कारण बताने लगे। मिस्र के एक अधिकारी ने तो बुर्के को मुस्लिम औरतों के पिछड़ेपन का प्रतीक तक बता डाला। मुझे  यह सब पाखंड नजर आने लगा। मेरे समझ में नहीं आता आखिर पश्चिमी देशों की सरकारें और मानवाधिकार संगठन जब औरतों के संरक्षण के लिए आगे आते हैं तो उन पर एक ड्रेस कोड क्यों थोप देते हैं?  मोरक्को, ट्यूनिसिया, मिश्र जैसे देशों में ही नहीं बल्कि पश्चिमी लोकतांत्रिक कहे जाने वाले देश ब्रिटेन, फ्रं ास, हॉलेंड आदि में हिजाब और नकाब पहनने वाली औरतों को शिक्षा और काम करने से रोक दिया जाता है। मैं खुद महिला अधिकारों की हिमायती हूं। मैं मुस्लिम महिलाओं से कहती हूं कि वे अपने पतियों को अच्छे मुसलमान बनाने की जिम्मेदारी निभाएं। वे अपने बच्चों की परवरिश इस तरह करें कि बच्चे पूरी इंसानियत के लिए रोशनी की मीनारें बन जाए। हर भलाई से जुड़कर भलाई फैलाएं और बुराई से रोकें। सदा सच बोलें। हक के साथ आवाज उठाएं और बुराई के सामने आवाज उठाएं। मैं मुस्लिम औरतों से कहती हूं कि वे मुस्लिम परिधान हिजाब और नकाब पहनने का अपना अनुभव दूसरी औरतों तक पहुंचाएं। जिन महिलाओं को हिजाब और नकाब पहनने का मौका कभी ना मिला हो उनको बताएं कि इसकी हमारी जिंदगी में क्या अहमियत है और हम दिल से इसे क्यों पहनती हैं। हम मुस्लिम महिलाएं अपनी मर्जी से पर्दा करती हैं और हम इसे कत्तई छोडऩे के लिए तैयार नहीं है।
पहले मैं मुसलमान नहीं थी, इस वजह से मैं इस बात पर जोर देना चाहूंगी कि पर्दा करके हर औरतों को इससे खुशी और इज्जत पाने का अधिकार है, जैसा कि मैंने यह हासिल किया। पहले बिकनी मेरी आजादी का प्रतीक थी, जबकि सच्चाई यह है कि बिकनी ने मुझे  आध्यात्मिकता, सच्चे मानव मूल्यों और इज्जत से दूर कर दिया था। मुझे  साउथ बीच की पश्चिमी भव्य जीवनशैली और बिकनी छोडऩे में जरा भी संकोच महसूस नहीं हुआ क्योंकि उस सबको छोड़कर अपने रब की छांव में सुकून और चैनपूर्ण जिंदगी जी रही हूं। मैं पर्दे को बेहद पसंद करती हूं और मेरे पर्दा करने के अधिकार के लिए मैं मरने को भी तैयार हूं। आज पर्दा औरतों की आजादी का प्रतीक है। वे महिलाएं जो हया और हिजाब के खिलाफ बेहूदा और भोंडा पहनावा पहनती हैं, उन्हें मैं कहना चाहूंगी कि आपको एहसास नहीं है कि आप किस महत्वपूर्ण चीज से वंचित है।
मैंने मध्य पूर्व देशों की यात्रा की और अपने पति के साथ अमेरिका से मिस्र शिफ्ट हो गई। मैं अपनी सास के साथ यहां इस्लामी माहौल में जिंदगी गुजारती हूं। मुझे एक सुंदर परिवार मिल गया। इस परिवार से भी बड़े परिवार-मुस्लिम सोसायटी के परिवार की मैं सदस्य बन गई। यह मुझ पर अल्लाह का बहुत बड़ा अहसान है कि मुझे ऐसी जिंदगी हासिल हुई। अब मेरा दुख, निराशा, अकेलापन गायब है। मैं अब एक सामाजिक ढांचे के तहत जिंदगी गुजार रही हूं। मेरे पथ प्रर्दशन के लिए कुरआन के रूप में किताब है। मैं महसूस करती हूं कि मैं किसी की हूं। मेरा अस्तित्व है। मेरा एक घर है। मेरा खालीपन दूर हो गया है और दिल को पूर्णता का एहसास है। मुझे अल्लाह से उम्मीद है कि वह इस जिंदगी के बाद दूसरी जिंदगी (मौत के बाद की जिंदगी) में भी कामयाबी अता करेगा।
सारा बॉकर अभी 'द मार्च ऑफ जस्टिस' की कम्यूनिकेशन डायरेक्टर हैं और ग्लोबल सिस्टर नेटवर्क की संस्थापक है।  उनसे srae@marchforjustice.com पर सम्पर्क किया जा सकता है।

शनिवार, 24 मई 2014

इंग्लैंड की महिला जज ने अपनाया इस्लाम

'सर्वशक्तिमान ईश्वर ने मुझे सच्ची राह दिखाई जिसके अलावा कोई और सीधा और सच्चा रास्ता नहीं है। मैं जितना ज्यादा इस्लाम और पैगम्बर मुहम्मद सल्ल. के बारे में जानती और समझती गई मुझे एहसास होता चला गया कि मैं उसी राह पर चल रही हूं जिसकी मुझे तलाश थी और यही वह राह है जहां मुझे होना चाहिए था।'
यह कहना है इंग्लैंड की महिला जज मैरीलीन मॉरनिंगटॉन का जिन्होंने इस्लाम को समझने के बाद इसे अपना लिया।
मैरीलीन मॉरनिंगटॉन इंग्लैंड में जिला न्यायाधीश ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय लेक्चरर और घरेलू हिंसा व पारिवारिक कानून विषय की लेखिका हैं। मैरीलीन मॉरनिंगटॉन ने 1976 में वकालत की डिग्री हासिल की और 1976 से लिवरपूल में पारिवारिक कानून से जुड़े मामलों की प्रेक्टिस करने लगी। वे चालीस साल की उम्र में 1994 में लिवरपूल के नजदीक स्थित ब्रिकेनहेड शहर में डिस्ट्रिक्ट जज के पद पर नियुक्त हुईं। मॉरनिंगटॉन चालीस साल की उम्र में जिला न्यायाधीश के पद पर नियुक्त होने वाली पहली वकील थीं। मैरीलीन वल्र्ड एकेडमी ऑफ आर्ट्स एंड सांइस की शोधार्थी के रूप में चुनी गईं। मैरीलीन घरेलू हिंसा से जुड़े मामलों की अच्छी जानकार है और उन्हें इस क्षेत्र में काफी सम्मान की नजर से देखा जाता है और इस फील्ड से जुड़े  विभिन्न ओहदों पर वे कार्यरत्त हैं । इस्लाम अपनाने से पहले दस से बारह वर्षों तक उन्होंने महिलाओं और बच्चों के खिलाफ होने वाली हिंसा से जुड़े केसों पर काम किया। मुसलमानों के बीच जाकर भी उन्होंने महिला और बच्चों के खिलाफ होने वाली हिंसा का अध्ययन किया। मुस्लिम कम्युनिटी में इस मसले को बेहतर तरीके से समझने के लिए उन्होंने इस्लाम का अध्ययन शुरू कर दिया और मुसलमानों के बीच घुलने-मिलने लगीं।

रविवार, 2 मार्च 2014

विक्टोरिया एरिंगटोन अब आयशा

सिस्टर विक्टोरिया (अब आयशा) की इस्लाम अपनाने की दास्तां बड़ी दिलचस्प है। उनका पहली बार मुसलमान और इस्लाम से सामना 2002 में तब हुआ जब उन्होंने सेना की नौकरी जॉइन की और सऊदी अरब के सैनिकों के सम्पर्क में आई। और फिर उन्होंने साल 2011 में इस्लाम अपना लिया । अपनी जिंदगी में घटित एक दुखद घटना और कुरआन और हदीस (पैगम्बर मुहम्मद सल्ल. की शिक्षाओं) का अध्ययन के बाद उन्हें अपनी जिंदगी का मकसद इस्लाम में ही नजर आया।

अस्सलामु अलैकुम
मेरा नाम विक्टोरिया एरिंगटोन (अब आयशा) है। मैं जॉर्जिया में पैदा हुई और गैर धार्मिक ईसाइ परिवार में पली-बढ़ी। मैंने गैर धार्मिक इसलिए कहा है क्योंकि हम अक्सर चर्च नहीं जाते थे और मेरे माता-पिता शराबी और स्मोकर थे। मेरे माता-पिता के बीच उस वक्त तलाक हो गया था जब मैं युवा थी। तलाक के बाद मेरी मां ने चार बार विवाह किया। मेरे पिता अक्सर काम के सिलसिले में सफर पर ही रहते थे और वे घर पर कम ही रुकते थे। इन हालात से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि मेरी पारिवारिक जिंदगी सामान्य नहीं रही।
ईसाइयत से जुड़े कई सवाल अक्सर मेरे दिमाग में घूमते रहते थे। जैसा कि ईसाइ मानते हैं कि ईसा मसीह पूरे इंसानों के गुनाहों की खातिर सूली पर चढ़े हैं। मैं सवाल उठाती थी अगर हमें ईसा मसीह के सूली पर चढऩे की वजह से पहले ही अपने गुनाहों की माफी मिल गई है तो फिर हमें नेक काम करने की आखिर जरूरत क्यों है? मनाही के बावजूद आखिर हम सुअर का गोश्त क्यों खाते हैं? आखिर एक ही वक्त में ईश्वर, ईश्वर और ईसा कैसे हो सकता है? यानी एक ईश्वर दो रूपों में वह भी एक ही वक्त में! ऐसे कई सवाल अक्सर मेरे जहन में उठते थे। मैं इन सवालों का जवाब चाहती थी लेकिन न परिवारवालों के पास और न ही पादरियों के पास मेरे इन सवालों का जवाब था। मेरे यह सवाल अनुत्तरित ही रहे।
साल 2002 में मैंने सेना की नौकरी जॉइन की और टे्रनिंग के दौरान मैं कई मुस्लिम सऊदी अरब के सैनिकों के सम्पर्क में आई। यह इस्लाम से मेरा पहला परिचय था। हालांकि उस वक्त धर्म को लेकर मैं संजीदा नहीं थी। दरअसल मेरी जिंदगी में एक अहम मोड़ 2010 में आया जब मुझे एक गंभीर पारिवारिक संकट का सामना करना पड़ा क्योंकि मेरे ईसाइ पति ने मुझे तलाक दे दिया था। इसी बीच मेरी मुलाकात एक शख्स से हुई जो मुस्लिम था। मैंने उस मुुस्लिम शख्स की जिंदगी के विभिन्न पहलुओं और गतिविधियों पर गौर किया। उससे इस्लाम से जुड़े कई सवाल पर सवाल किए। उस मुस्लिम शख्स ने मुझ पर कभी भी इस्लाम नहीं थोपा बल्कि मुझसे कहा कि आप फलां-फलां किताबें पढें। उसने मुझो इस्लाम पर कई किताबें और कुरआन दी। मैंने पूरा कुरआन पढ़ डाला और बहुत कुछ बुखारी (इसमें मुहम्मद सल्ल. की शिक्षाएं संकलित हैं।) भी। इस्लाम पर और भी अनगिनत किताबें मैने पढ़ डाली। मैंने अपने हर एक सवाल का जवाब इस्लाम में पाया। मैंने इस्लाम में जिंदगी से जुड़े हर पहलू पर रोशनी पाई। मुझे हर एक मसले का समाधान इस्लाम में नजर आया। अब मैं जान चुकी थी कि यही एकमात्र रास्ता है जो मुझे सिखाता है कि मुझो अपनी जिंदगी किस तरह गुजारनी चाहिए।
मुझे अपने सवालों के जवाब चाहिए थे। मैं एक गाइड बुक चाहती थी जिसके मुताबिक मैं अपनी जिंदगी गुजार सकूं, और आखिर इसी के चलते मैनें दिसम्बर 2011 में इस्लाम अपना लिया।